अपने हिस्से की छत खो कर मैंने
रच डाले हैं बालू से घर मैंने
भरने को परवाज़ बड़ी घर छोड़ा
तन-मन कर डाला यायावर मैंने
हाथ पिता का माँ का आँचल छूटा
प्यार बहन का खोया क्यूँकर मैंने
धुँआ धुँआ सारे मंज़र कर डाले
जीवन का उपहास उड़ाकर मैंने
तंज़ सहे 'आलोक' बहुत ग़ैरों के
अपनों से भी खाए पत्थर मैंने
-आलोक यादव
रच डाले हैं बालू से घर मैंने
भरने को परवाज़ बड़ी घर छोड़ा
तन-मन कर डाला यायावर मैंने
हाथ पिता का माँ का आँचल छूटा
प्यार बहन का खोया क्यूँकर मैंने
धुँआ धुँआ सारे मंज़र कर डाले
जीवन का उपहास उड़ाकर मैंने
तंज़ सहे 'आलोक' बहुत ग़ैरों के
अपनों से भी खाए पत्थर मैंने
-आलोक यादव
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